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Poem

सतह से उठते हुए

सतह से उठते हुए मैनें जाना कि-
इस धरती पर किए जा रहे श्रम में
जितना हिस्सा मेरा है, उतना ही हिस्सा
इस धरती के, हवा, पानी और
इससे उत्पन्न होने वाले, अन्न और धन में भी है।
अब मैं समझ गया हूँ, उस अंक गणित को
जिसके कारण, मेरे श्रम कण
मिट्टी में मिलकर, दूसरों की झाोली को
मोतियों से भर देते हैं और-
मेरी झोली में होती है, भूख, बेबसी और लाचारी
इसलिए अब मेरे हाथ की कुदाल
धरती पर कोई नींव खोदने से पहले कब्र खोदेगी
उस व्यवस्था की जिसके संविधान में लिखा है-
"तेरा अधिकारी सिर्फ कर्म में है, श्रम में है,
फल पर तेरा अधिकार नहीं।"



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मेरा अस्तित्व

मेरा समूचा अस्तित्व, उस आशा और अकांक्षाहीन
जीवन का, प्रतीक है जो जिन्दा रहने में ही कट जाता है
मैं इतिहास के पृष्ठों के लिए अछूत हूँ क्योंकि
मैनें रक्त-रेखा वहाँ खींची है
जहाँ पर इतिहास के तथाकथित ठेकेदारों की दृष्टि
नहीं पहुँचती क्योंकि उन्हें उनकी आँखों से दिखाने के लिए
आवश्यक है पाँच सितारों की, काक्टेल पार्टियाँ और
नर्म गुदाज संसर्ग की एक लम्बी यात्रा!
चूँकि मेरे पास यह सब नहीं है
इसलिए मैं विवश हूँ
गुमनामी के अंधेरों में घुटने के लिए

लकीरें रेत पर

रेत पर लकीरें खींचते-खींचते, न जाने कब इन लकीरों में
भारत का नक्शा उभर आया, फिर नक्शे में उभरे प्रदेश
प्रदेशों में समस्याएँ, धीरे-धीरे ये समस्याएँ ही
न जाने कब और कैसे? आदमी में बदल गई
समस्याओं से घिरा, ये आदमी ही कविता है!
चाहे इसे समाचार कहो या शाश्वत!
कुछ फर्क नहीं पड़ता,
इस देश में नेता जैसे, केवल नारे गढ़ता है
समस्याओं से नहीं लड़ता, लेकिन अब आदमी
सीधे-सीधे इन समस्याओं और इनके कारणों से,
लड़ने पर उतारू है। क्योंकि वह आदमी है नेता नहीं!
और कविता! इस लड़ने पर उतारू बेजुबान आदमी की अवाज है!
ये आवाज शाश्वत है, सत्य है, कह की लड़ाई की तरह
इसे रोका नहीं जा सकता, खोखले शांति प्रयासों से क्योंकि
ये शांति प्रयास भरे पेट की डकारें हैं, जो कुछ लोगों की
बदहजमी की शिकायत तो दूर कर सकती हैं
किसी भूखे को रोटी, बेरोजगार को काम नहीं दे सकती
इसलिए अब, भूखे पेट की कराहें, खाली हाथ तक आकर
पत्थर में बदल गई हैं जो सीधे तना है
अव्यवस्था के शीश महल की तरफ

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धर्मानान्तरण

आप कहते हैं, पेट की सिलवटें धर्म बेचने पर उतारू हैं
ये धर्म का प्रश्न नहीं है, रोटी की कहानी है!
जिन्दगी के गणित को हवा में सुलझाने वालो
यह दौर तूफानी है।
जिसकी आँखों के सामने लुटती है बेटी की इज्जत,
उसकी बेबसी को समझो, यूँ धर्म का उपदेश न दो
उसने सिर्फ रोटी के लिए ही इस धर्म को बेचा है
तुम उसे कुछ दो य न दो, किन्तु यह दोष न दो
अपने स्वार्थों की लड़ाई में, इन मासूम गरीबों को
हथियार बनाने वालो, ये भी आदमी हं
इन्हें गेंद मत समझो, इन्हें यूँ मत उछालो
अब भी समय चेतो, इस देश के लिए सोचो
भारत माँ सबकी माँ है, इसके आँचल को फटने से बचा लो,
इस देश की धरती को बँटने से बचा लो!

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अभी वक्त है

हमने तो अपने गीतों में, उस पीड़ो को गाया है!
जन जीवन की साँस-साँस को, टूक-टूक जिसने खाया है!
समाजवाद के नारे भी है, राहत के दावे भी है,
फिर भी जाने साजिश कैसी? रमचन्ना का भूखा बेटा,
बिना फीस स्कूल नहीं जा पाया है!
दिन भर क्षटता, गाली खाता, दो मुट्ठी अन्न के दानों को,
बेगारी में उम्र कट गई, कभी भर पेट नहीं खा पाया,
रोटी के टुकड़ों पर लिखी जिस व्यथा को,
अब तक यह देश नहीं पढ़ पाया है!
किसका पाप पेट में लेकर, भरे बाजारों घूम रही अपनी आजादी,
खड़े तमाशा देख रहे हैं, बड़े-बड़े नैतिकतावादी!
जाने क्या कैसी मजबूरी? कोई कुछ भी बोल नहं पाया है।
आज नहीं तो कल जरूर, ये भूखी मानवता जागेगी,
अपनी सारी मेहनत का, तुमसे जरूर हिसाब मांगेगी।
इन लपटों को अभी संभालों, अभी वक्त है,
वरना इस ज्वाला को कोई रोक नहीं पाया है।

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मुझे देवता न बनाओ

जरा झाँकने की कोशिश तो करो, अतीत के झरोखे से, अपने वर्तमान में
तुम्हारी शिराओं में दौड़ता हुआ रक्त, खौलने लगेगा मेरी ही तरह।
धधक उठेगी ज्वाला, तुम्हारे मन और मस्तिष्क में, कि कैसे एक-एक अक्षर के लिए
मन्दिर की दीवारों में बंद, पत्थर के स्पर्श नहीं, केवल दर्शन के लिए, शताब्दियाँ तड़पी हैं
हमारी पीढ़ियां घूँट-घूँट पीया है अपमान को, धर्म के नाम पर जीया है अधर्म को!
मेरे बाद फिर कभी ऐसा न हो इसलिए लड़ा हूँ मैं
बहुत ही कच्ची जमीन पर खड़े होकर तुम्हारे हितों के लिए
विरोध और अपमान के प्रहार से ली है
बुद्धि केवल बुद्धि के ही कवच पर।
सामाजिक सम्मान की इस पगडंडी के निर्माण में कितनी बार हुए हैं लहूलुहान
मेरे मन, हाथ और चेतना।
अपने उन्ही लहूलुहान हाथों को तुम्हें सौंप आया था मैं
6 दिसम्बर 1986 को ताकि बना सको तुम
इस पगडंडी को राजमार्ग जिस पर चल सकें मेरी संतानें
बेखौफ होकर लेकिन आज मेरी सन्तानें वर्ष में एक बार पूजती हैं मुझे
देवता बनाकर और बाँट लेती है राजनीतिक लड्डुओं का प्रसाद आपस में ही।
मुझे इंसान ही रहने दो, देवता न बनाओ, मेरी पूजा न करो
मेरे छोड़े गए काम को पूरा को।

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पहचान लो

सावधान! आ रहे हैं भेड़िये
गाय के वेश में, उनकी वाणी में अमृत है,
दरअसल वह विष है!
जो कान से दिल तक पहुँच कर
धीरे-धीरे असर करता है!
वह तुम्हारे अस्तित्व का सौदा करने आ रहे हैं,
बड़ी विनम्रता से, कुछ देने का वायदा करके
वे कुछ बहुमूल्य ले जाएंगे! फिर लौटकर नहीं आएंगे
इसलिए
इससे पहले कि वह तुमको पहचानने से मना कर दे
तुम दोस्त और दुश्मन पहचान लो!

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दीप पर्व: संकल्प पर्व

मृत्तिका के दीप ये क्या कर पायेंगे रोशनी दिल में?
संदिग्ध है, क्योंकि जिनका वायदा था
इस रोशनी को हम तक पहुँचाने का
उन्होनें देखा है अपनी बंद आँखों से
पाँच वर्षों तक, रोशनी का तस्कर व्यापार
और सिल ली है अपनी जुबान
अब वही अपनी बन्द आँखों और सिली जुबान की
शाख वसूल रहे हैं, चन्दे के रूप में!
ताकि प्रसन्न कर सकं, चुनाव की लक्ष्मी को
इस बार हम इस दीप पर्व को
संकल्प पर्व के रूप में मनाएंगे
और रोशनी के तस्कर व्यापार की संरक्षक
नुकीली टोपी और खादी के सफेद कपड़ों की
हकीकत को सरेआम बेनकाब कर दिखाएंगे!

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कितनी व्यथा

कितनी व्यथा झरी आज तक बदली से,
रोक सका है कौन अरे मधुमास को?
जाने कितने टूटे हैं अहसास मगर,
तोड़ सका है कौन अनश्वर आस को?

मत ठोकर खाकर ठहर पथिक पथ शेष है,
हर ठोकर आभास है तेरी मंजिल का!
शंकित हो! मत बैठ कूल पर ओ मांझाी,
तेरी यह पतवार रूप है साहिल का!
यह तो सच , हर भोर सांध्य सन्देश है,
रोक सका पर कौन प्रचण्ड प्रकाश को?

आज कल्पना विचर रही हेमालय में,
दीख रहा प्रसाद कुटी के छेद से!
वैभव मिले सरलता से तो ठीक है,
वैभव नहीं मिले जो, अरे विभेद से!
कितने सावन आए, आकर लौट गए,
कौन बुझा पाया प्यासे की प्यास को?

भरा नहीं जो आज आँसुओं से दामन
कल सिहरेगा देख अतुल मुस्कान को!
यदि चाहते हो शैल शिखर निज पाँव में,
चढ़ना होगा तुम्हें हर एक सोपान को!
श्रम, बस श्रम अनमोल निधि है जीवन की,
और अधिक दृढ़ करो इसी अहसास को!

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आरती का दीप

मैं तुम्हारी आरती के दीप का धृत
स्निग्ध हूँ तो क्या मुझे जलना पड़ेगा?
मैं हृदय के शीत कोने में जमा था,
अब पिघलकर आँच से

जिन्दगी यह वेदनाओं की नदी-सी,
सींच भी दे कुसुम क्यारी क्या हुआ!
पुष्प की तकदीर कितनी क्षणिक है पर,
एक पल हँस ही लिया तो क्या हुआ?

क्या पता है मिलन शैया पर सजेगा,
या किसी शव के कफन चढ़ना पड़ेगा?

वृक्ष की छाया घनी मादक मधुर है,
बीज की सोती व्यथा पर मूल में!
टीस वह कितनी छुपाए गल गया,
गिन सकोगे दूर उड़ती धूल में!
पूर्णिमा का चाँद किने दिन रहेगा,
फिर उसे बढ़ना है तो घटना पड़ेगा!

पाप है क्या, पुण्य क्या है, इस जगत में,
छल रहा इन्सान खुद को किसलिए?
जब समय का ज्वार रूकता ही नहीं,
फिर मनुजता का विभाजन किसलिए?

दीप पावन धूम्र रेखा क्यों अपावन?
प्रश्न को उत्तर स्वयं बनना पड़ेगा!

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गीत

धड़कनें रह न जाएं कहीं अनछुई
आओ मिलकर रचें एक कहानी नई!

दर्द पहलू में कब कसमसाने लगे,
जिन्दगी कब ये दामन छुड़ाने लगे!
तुमको है कुछ पता, क्या सकोगे बता,
छोड़ बनजारा कब गाँव जाने लगे!

तब तलक काल के थाल से हम यहाँ,
आओ छिपकर चुरा लें जवानी नई!

दृष्टि खण्डों में अब तक रहे बाँटते,
बढ़ चलीं खाइयां पाटते-पाटते!
फिर भी भटका किए तृप्ति की चाह में,
हम फसल दर्द की काटते-काटते!

आ भी जाओ चलो रोप दें प्यार की,
अपने आँगन में एक रातरानी नई!

इस धारा से सभी काँटे मिलके चुनें,
नेह के तार वाली चुनरिया बुनें!
ओढ़ जिसको थिरकने लगें स्वप्न सब,
मंत्र बस प्यार ही हम सब गुनें!

द्वार चूमे प्रभा हर मेरे देश का,
ज्योति ऐसी है हमको जलानी नई!

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अनिश्चय की आँधी

एक अनिश्चय की आँधी से कितने वृक्ष गिरे।
चली हवा तो शूल पास के कोमल पात चिरे।।

अमराई के सपने बस, फिर-फिर बौराए रहे।
जैसे सावन में फिर से हों, काले मेघ घिरे।।

भूख प्यास कब बुझ पाई हैं, केवल नारों से।
कोरे आश्वासन पर कब तक जर्जन नाव तिरे।।

एक बार तुम पहुँचा तो दो हमको संसद तक।
पाँच बरस तक फिर तो हम ना उल्टे पाँव फिरे।।

कब तक छलते जाओगे तुम भोली जनता को।
कब तक जुड़ते ही जाएंगे ये बेमेल सिरे।।

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दो लघु कवितायें

(एक)

जिन्दगी एक बे-सिलसिला कहानी है
जो सिलसिला तलाशते हैं वह भटक जाते हैं,
जो सिलसिला तलाश रहे हैं,
वह जिन्दगी जी नहीं रहे बल्कि घसीट रहे हैं उसे
एक नागवार बोझ की तरह!

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(दो)

जिन्दगी, हस्त रेखाओं की तरह उलझी हुई है
और मैं! सड़क के किनारे बैठा ज्योतिषी
अपने भविष्य से बेखबर दूसरों के भविष्य की
चिन्ता में उलझा अपने वर्तमान को धीरे-धीरे
गर्क होते देखता हूँ, सुबह से शाम तक!

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