डाॅ0 एन0 सिंह: संघर्श से उभरता चिन्तन
- मोहनदास नैमिषराय
साहित्य की दुनिया में कथाकारों/समीक्षकों तथा आलोचकों के बीच यह अक्सर कहा और लिखा जाता रहा है कि किसी कवि तथा लेखक ने संघर्श नहीं किया तो उसकी रचनाओं तथा कृतियों में ताप कहाँ से आएगा। अपनी नहीं दूसरों की समस्याओं पर सवाल करना और सवाल करते हुए उन्हें हल करना, हल करते हुए जूझना, यह सब रचनाधर्मिता की पृश्ठभूमि के लिए जरूरी होता है। प्रेमचंद से लेकर नागार्जुन तक विकट और विशय परिस्थितियों से जूझना और जूझते हुए रचना करना कला नहीं बल्कि सामाजिक न्याय के दर्षन को आगे बढ़ाने की जद्दोजहद होती है। कहना न होगा कि लगभग हर किसी लेखक के जीवन में संघर्श तो होता ही है। किसी के जीवन में कम तो किसी के जीवन में ज्यादा। गरीबी की चुभन हो तो संघर्श के तेवर और अधिक मारक हो जाया करते हैं। पर जब हम किसी दलित लेखक/कवि/चिन्तक की बात करें या संघर्श के दिनों के दौर में उसके दर्द के दस्तावेज को देखें और उसके भीतर का ताप महसूस करें तो गरीबी/संघर्श/बेचैनी के साथ सामाजिक विशमता की बेरहम परम्पराओं में उसी दलित रचनाकर्मी को पिघलते हुए/सिसकते हुए/जूझते हुए कागजों पर संघर्श की इबारत लिखना लाजमी बात है।
डाॅ0 एन0 सिंह भी वैसी ही परिस्थितियों से जूझते हुए/संघर्श करते हुए अपने मुकाम तक पहुंचे हैं। उनके अतीत के पृश्ठ इस बात की गवाही देते हैं। स्वयं डाॅ0 एन0 सिंह ने लिखा है - "दलित कवि आज जो दर्द के दस्तावेज लिख रहे हैं, वे निष्चय ही इस वर्ग के लोगों के लिए एक दिन मषाल बनेंगे, जिसकी रोषनी में यह लोग अपना लक्ष्य स्पश्ट होता देख सकेंगे और उसे प्राप्त करने के लिए, संघर्शषील हो सकेंगे, दलित कविता इसके लिए ही पूर्व भूमिका तैयार करने का प्रयास कर रही है।" वरिश्ठ लेखक/कवि/नाट्यकार/चिन्तक माता प्रसाद जी जब अरुणाचल प्रदेख्ष के राज्यपाल थे, तब उन्होंने प्रषंसा करते हुए 'दर्द के दस्तावेज' कविता संग्रह की कविताओं को प्रेरणाप्रद और पथ-प्रदर्षक बतलाया था।
डाॅ0 एन0 सिंह की विचार यात्रा सन्त कवि रैदास से आरम्भ हुई। यह अच्छा ही हुआ। दलित साहित्य और चिन्तन के नये आयाम उनके भीतर प्रविश्ट हुए। परम्परागत रूप से वाल्मीकि की तरफ वे नहीं गये। वाल्मीकि को गुरू मान लेते तो हिन्दू धर्म और उसकी संरचना में फंसते चले जाते। फिर बाबा साहेब डाॅ0 अम्बेडकर के दर्षन से भी वे अछूते रह जाते। जीवन में बहुत-सी बातों की षुरुआत बाद की जीवन यात्रा को प्रभावित करती है। उनके साथ भी ऐसा ही हुआ। सन्त रैदास के काव्य का पाठालोचन एवं समीक्षात्मक अध्ययन लघु षोध परियोजना विष्वविद्यालय अनुदान आयोग, नई दिल्ली द्वक्षरा वित्तपोशित हुई। उनकी दृश्टि विकसित हुई। गांव से कस्बा, कस्बा से षहर और षहर से महानगर, इस यात्रा के दौरान उनके षोध-ग्रन्थ ने उन्हें ताकत दी। चिन्तन आगे बढ़ा। सन्त कवि रैदास मूल्यांकन और प्रदेष (आलोचना) 1983 में प्रकाषित हुई। पद्श्री क्षेमचन्द्र सुमन ने उसे रैदास के जीवनवृत्त और काव्य का दस्तावेज कहा है।
इसके बाद रैदास से अम्बेडकर की ओर उनका झुकाव होता है। तभी तो रमण सिन्हा से बातचीत के दौरान 'रामचरित मानस को एक वर्ग विषेश की रोजी-रोटी का साधन' कह पाने की वे हिम्मत जुटाते हैं और 'ये षोर है' कविता में दलितों का आह्वान भी करते हैं -
बोलिए कुछ, लील न लें चुप्पियाँ
दोस्तों दहषत भरा ये दौर है।
प्रतिवर्श अनेक सरकारी तथा गैर सरकारी या फिर अर्द्धसरकारी संस्थाओं द्वारा बांटे जाने वाले पुरस्कारों की परम्परा तथा बन्दरबांट की राजनीति पर सीधा प्रहार करते हुए वे कहते हैं - 'कला, संस्कृति और साहित्य के नाम पर प्रतिवर्श करोड़ों रुपयों का बन्दरबांट हो रहा है। इसमें दलितों का हिस्सा कहाँ है?' वे 'सतह से उठते हुए' कविता में कहते भी हैं -
सतह से उठते हुए
मैंने जाना कि -
इस धरती पर किए जा रहे
श्रम में
जितना हिस्सा मेरा है
उतना ही हिस्सा
इस धरती के
हवा, पानी और
इससे उत्पन्न होने वाले
अन्न और धन में भी है
अब मैं
समझ गया हूँ
उस अंक गणित को
जिसके कारण
मेरे श्रम कण
मिट्टी में मिलकर
दूसरे की झोली को
मोतियों से भर देते हैं.........."
डाॅ0 एन0 सिंह का जीवन भले ही ऊबड़-खाबड़ तरह का रहा है। लेकिन श्रृंगारिक गीत उनके भीतर से उभरते थे। जितनी खुषनुमा सुबह होती थी उतनी ही खुषनुमा षाम भी वे चाहते थे। सम्भवतः इसका कारण 'सुशमा' रही हो। जिनसे बाद में उन्होंने विवाह भी किया। पर अगर सुशमा जी उनके जीवन में नहीं आती तो क्या होता? वे कवि होते या गजलकार या फिर किसी स्कूल, कालेज में अध्यापक। हो सकता था एन0 सिंह एक जुझारू कथाकार भी होते। विद्रोह उनके भीतर से उभरता। कविताओं से आग बरसती। इन सबके कारण यह भी हो सकता था कि उन्हें जेल भी जाना पड़ता। इस बारे में न स्वयं 'नगीना जी' ने लिखा और न 'सुशमा जी' ने और न ही उनके साथियों ने। षायद जरूरत नहीं समझी गई हो। या फिर परिस्थितियों ने ढंकी आग को ढंका ही रहने दिया गया हो। क्योंकि आग कुरेदी जाती है तो जैसे-जैसे चिंगारियाँ छिटकती हैं वैसे-वैसे ही आग और भी बढ़ती है। डाॅ0 एन0 सिंह के जीवन का यह अध्याय खुला नहीं। इसीलिए आत्मकथा लिखने की चुनौती उन्होंने स्वीकार नहीं की। हालांकि अन्य चुनौतियाँ वे स्वीकार करते भी गये। पर वे चुनौतियाँ स्वीकार कीं अवसर की नजाकत देखकर। जीवन के सच से वे पहले ही भली भांति वाकिफ हो चुके थे। उनके सामने जीवन का सच भी था और लोगों का झूठ भी। राजनीतिज्ञों के प्रपंच भी थे और कुछ अपनों के ही छल भी। वे न टूटना चाहते थे और न बिखरना। वे चाहते थे जीवन में आगे बढ़ना। उसके लिए उन्होंने अच्छी खासी मेहनत भी की थी। पर सवाल फिर उभरता है कि वे अगर ऐसा नहीं करते तो आज दलित साहित्य के आकाष में कवि/कथाकार/सम्पादक/समीक्षक/आलोचक आदि-आदि बनकर उभरते? आलोचक के नाते परम्परागत हिन्दी साहित्य का पुनर्मूल्यांकन भी न कर पाते। सिर्फ अपनी रचनाएँ देते। न ही 'चेतना के स्वर' और 'काले हाषिये पर' का सम्पादन कर पाते। उनके इस विषेश कार्य को भुलाया नहीं जा सकता। क्योंकि दलित रचनाओं की पाठ्यक्रम में षुरुआत उन्हीं के प्रयासों से हुई थी। इसमें कोई सन्देह भी नहीं है। विष्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में दलितों की कविता/कहानियाँ/उपन्यास/नाटक आदि के लगाये जाने की उन्होंने जोरदार तरीके से वकालत की थी। साथ ही पाठ्यक्रम की तकनीकी प्रक्रिया में षैक्षिक ढाँचे के भीतर जाकर प्रयास भी किये थे। हालांकि उन्हीं के समानान्तर पाठ्यक्रम में दलित रचनाओं के लगाने की बात समय-समय पर डाॅ0 धर्मवीर/ष्यौराज सिंह बेचैन/रमणिका गुप्ता/डाॅ0 प्रेम षंकर/डाॅ0 तेजसिंह तथा ओमप्रकाष वाल्मीकि ने भी की थी।
कहना न होगा कि यह सब इसलिए भी हो सका कि डाॅ0 एन0 सिंह ने समन्वय का रास्ता अपनाया। पर उनकी समन्वय दृश्टि को समझौता नहीं कहा जा सकता। आज उम्र के इस मोड़ पर यह बात मैं कह सकता हूँ कि सम्यक दृश्टि का जीवन दर्षन स्थायी रूप में कुछ कर पाने में सफल होता है। दलित साहित्य में डाॅ0 एन0 सिंह का इसे एक प्रयोग भी माना जा सकता है। हाँ, उनके भीतर विरोधाभास जरूर रहा। कहीं उनका मन प्रेमी बनकर प्रेमिका के संग के लिए चहकता नजर आता है और उनके हृदय में प्यार का समन्दर हिलौरें मारने लगता है तो कहीं वे कुदाल लेकर आन्दोलनकारी बन जाते हैं -
"मैंने सिर्फ एक बार
तेरे होठों को छुआ था,
अनजाने में
अभी तक मेरी सांसों में,
ताजे गुलाब की सी गंध बाकी है।"
जुझारुता की प्रतीक अन्य कविता -
"मेरे हाथ की कुदाल
धरती पर कोई नींव खोदने से पहले,
कब्र खोदेगी उस व्यवस्था की
जिसके संविधान में लिखा है
तेरा अधिकार सिर्फ कर्म में है, श्रम में है,
फल पर तेरा अधिकार नहीं।"
डाॅ0 एन0 सिंह के जीवन में क्या नहीं था? संगीत/प्रेम/विरह/कसक/आक्रोष/उद्वेलन........। इसलिए वे गजल की ओर भी मुड़े। हालांकि गजल की ए0बी0सी0 से आगे न बढ़ सके। समीक्षक और आलोचक के रूप में भले ही उन्होंने फतह हासिल कर ली हो। राजनीति और राजनीतिज्ञों के बीच भी वे रमे। पर राजनीतिज्ञों से कुछ विषेश लाभ वे हासिल नहीं कर सके। वैसे भी किसी लेखक/समीक्षक के रिष्ते राजनीतिज्ञों से टिकाऊ नहीं रहते। पर महाराश्ट्र के दलित साहित्यकार इसके अपवाद हैं। उत्तरी भारत में डाॅ0 एन0 सिंह का यह दूसरा प्रयोग रहा। वैसे एक और प्रयोग में वे आगे रहे। वह प्रयोग था दलित साथियों के साथ गैर दलित लेखकों/कवियों/नाट्यकारों/समीक्षकों/आलोचकों/प्राचार्यों तथा प्रषासकीय अधिकारियों से तालमेल रखना। उत्तरी भारत में सम्भवतः कुछ दलित लेखकों को छोड़कर अधिकांष इस तरह के तालमेल से महरूम रहे हैं। उन्हें डाॅ0 एन0 सिंह से सीखना चाहिए।
पर कैसे कहूँ कि डाॅ0 एन0 सिंह तालमेल में ही फंसे रहे। उनके साहित्य सृजन को देखा और पढ़ा जाए तो सुखद अहसास के साथ आष्चर्य भी होता है यह सोचकर कि आखिर कितने मोर्चों पर उन्होंने कितनी जंग लड़ी होंगी। कितनों को खुष किया होगा, कितनों को नाराज? जैसे समंदर के किनारे बैठकर आदमी ठण्डी हवा का लुत्फ तो लेता है, पर उसी समंदर की लहरों के द्वारा जीवन को लील लेने का खतरा भी बना रहता है।
उनके लिखने से लेकर छपने तक का सचमुच एक इतिहास रहा है। उनके दर्द के दस्तावेज के भीतर से जैसे अभी भी विद्रोह के स्वर उभरते हैं। आक्रोष उपजता है। बड़ी बात यह रही कि उन्होंने विमर्ष को आगे बढ़ाने के प्रयास किये। जिसकी पिछली षताब्दी के 80 और 90 के दषक को जरूरत थी। तब साथियों के बीच लेखन के साथ बेचैनी थी। आगे बढ़ने की जद्दोजहद थी। पढ़ने/लिखने और सभा गोश्ठियों में षामिल होने का उत्साह था।
अतीत की यादों को वर्तमान के धरातल पर लाकर कहूँ तो ओमप्रकाष वाल्मीकि/कंवल भारती/ अरुण कांबले/डाॅ0 ष्यौराज सिंह बेचैन/कौषल्या बैसन्तरी/रूपचन्द गौतम/टैक्सास गायकवाड़/ मीनाक्षी मून/विजय प्रताप/संतोश रानी के साथ अन्य जो साथी मुझे पत्र लिखते रहते थे, उनमें डाॅ0एन0 सिंह भी रहे हैं। संवाद को आगे बढ़ाना या जारी रखना वे बखूबी जानते हैं। यह कला उनके पास अभी तक भी रही है। इसमें वे माहिर रहे हैं। उनके लेखन के विभिन्न आयाम हैं। पर उन सभी में दलित चिन्तन अवष्य उभरता है। दलित साहित्य को अनगिनत मोड़ों पर लाने के बाद उन्होंने छोड़ा नहीं बल्कि हर विधा के आधार पर दलितों की नई पीढ़ी का मार्ग प्रषस्त किया है। उन्हें आगे बढ़ने में मदद भी की है।
निष्चित ही यह बात कही जा सकती है कि उनके कृतित्व से उनका व्यक्तित्व भी उदार बना है। उतना अधिक लिखने तथा सम्पादन करने के बावजूद उनका स्वभाव मिलनसार रहा। न सिर्फ साथियों के प्रति बल्कि अपनी पत्नी के साथ अपने परिवार के लिए भी। भरे-पूरे परिवार को देखना/नौकरी करना/ नौकरी करते हुए ट्रांसफर झेलना/और इन सबकी कषमकष में लेखन को भी जारी रखना। यह डाॅ0 एन0 सिंह के द्वारा चुनौती को स्वीकार कर संघर्शरत रहना नहीं है तो और क्या है? डाॅ0 प्रेमषंकर के षब्दों में कहा जाए तो - "कवि कविताओं में एक ओर सामाजिक संघर्श से जूझ रहा है और अपने अस्तित्व के प्रति निराष होते हुए भी उसकी अस्मिता को उपेक्षित समाज के उभार में अन्वेशित कर रहा है।'' यह सामाजिक विकास की प्रक्रिया को पहचानने की उनकी समझ ही तो है।
अगर यह कहा जाए तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के साथ आरम्भ से ही एक संगीत रहा है। जिस संगीत के रिष्ते पहले उनकी अपनी प्रेयसी से जुड़े। जो बाद में पत्नी भी बनी। फिर उसी संगीत को स्वयं एन0 सिंह ने दलित साहित्य के साथ उसकी अस्मिता और चिन्तन से जोड़ा। इस तरह जीवन में उनकी सार्थकता भी बढ़ी। उसका विकास भी हुआ और उनका वहीं चिन्तन सीमाओं के बाहर जाकर भी सफल हुआ। उसका कारण यह रहा कि न उन्होंने अपने आप को समेटा और न ही दलित साहित्य को। परिणामस्वरूप उनके व्यक्तित्व के साथ उनके कृतित्व में भी विस्तार हुआ। जीवन का मर्म भी यही होता है और संघर्श का दर्षन भी। आप स्वयं ठहरे हुए पानी की तरह न रहे, न बने। कुछ परिवर्तन के साथ जीवन नैया को खेते रहे।
किसी लेखक ने कितनी पुस्तकें लिखीं, किसी कवि ने कितनी कविताएँ की। किसी चिन्तक ने दर्षन की कितनी पुस्तकें तैयार कीं। सफलता और सार्थकता के मापदण्ड यह नहीं होते हैं। मापदण्ड होते हैं लेखक और कवि के उद्देष्य के। उसके द्वारा षुरू किये गये विमर्ष के, वह विमर्ष कितना आगे गया? डाॅ0 देवेन्द्र दीपक ने 'सतह से उठते हुए' (काव्य संग्रह) की भूमिका में लिखा है - "उन्होंने अपनी सर्जना से आक्रोष के दंष को तोड़ा और प्रतिक्रिया को पचाकर क्रियावादी बन गए। उन्होंने न दूसरों को कोसा न अपने भाग्य को। उन्होंने किया यह कि जीवन के घोड़े की लगाम कस कर पकड़ ली और पूरे श्रम तथा चातुर्य से दौड़ में षामिल हो गये।"
षायद जीवन का एक सच यह भी है। डाॅ0 एन0 सिंह उसी सच की डोर पकड़कर आगे बढ़ते रहे। क्योंकि आगे बढ़ना उनका जरूरी भी था। वे आगे बढ़े तो बहुत से साथी भी आगे बढ़े। फिर उन साथियों में कोई भी हों। न जाति की दीवारें उन्हें रोक सकीं और न धर्म की खाईयाँ।
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मोहनदास नेमिषराय
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