डाॅ0 एन. सिंह को हिन्दी साहित्य में एक दलित लेखक और कवि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। उन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण कर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अध्यापन से अपने कैरियर की शुरूआत की और अब उ0प्र0 राजकीय महाविद्यालय में प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं। उ0प्र0 सरकार ने उन्हें दिनांक 19.07.2011 से दो वर्ष के लिए माध्यमिक शिक्षा सेवा चयन बोर्ड का सदस्य नियुक्त कर एक महत्वपूर्ण दायित्व भी सौंपा, जिसका निर्वाह उन्होंने सफलतापूर्वक किया। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन का प्रारम्भ कविता से किया। काफी दिनों तक उन्होंने मंचों पर काव्यपाठ भी किया। लेकिन धीरे-धीरे दलित साहित्य की ओर उनका रूझान हुआ और जैसे ही वैचारिक धुंध छटी तो वे पूरी तरह दलित साहित्य को ही समर्पित हो गये। उन्होंने अपने लेखन और सम्पादन से हिन्दी में दलित साहित्य को एक आन्दोलन का रूप दे दिया। अपनी समीक्षाओं द्वारा एक ओर उन्होंने दलित साहित्य को प्रतिष्ठापित किया वहीं उसकी वैचारिकी को भी स्पष्ट किया। उन्होंने उ0प्र0 के विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य को पाठ्यक्रम में लगवाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। उनके जीवन और साहित्य पर पांच विश्वविद्यालयों में एम0फिल0 तथा एक विश्वविद्यालय में पी-एच0डी0 हो चुकी है तथा छः विश्वविद्यालयों में शोध कार्य चल रहा है। हिन्दी दलित साहित्य का पहला इतिहास लिखने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, दलित साहित्य के पुरोधा डाॅ0 एन. सिंह को हिन्दी दलित साहित्य में एक आन्दोलनधर्मी रचनाकार की संज्ञा प्राप्त है।
जहाँ तक डाॅ0 एन. सिंह की कविता का सवाल है। इसे उनकी एक कविता 'सतह से उठते हुए' की कुछ पंक्तियों से समझा जा सकता है। पंक्तियां इस प्रकार हैं- "अब इस धरती पर/कोई नींव खोदने से पहले/मेरे हाथ की कुदाल/कब्र खोदेगी/उस व्यवस्था की/जिसके संविधान में लिखा है/कि तेरा अधिकार सिर्फ कर्म है,/श्रम में है/फल पर तेरा अधिकार नहीं।" वे अपनी कलम की कुदाल का इस्तेमाल उन धार्मिक रूढ़ियों की जड़ खोदने के लिए करना चाहते हैं, जिनके कारण दलित समाज को शताब्दियों से आर्थिक, सामाजिक और नैतिक संत्रास झेलना पड़ा है। भारत की इस धरती पर कितने ही सन्त, महात्मा और अवतार आए लेकिन दलितों की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आया। यदि परिवर्तन आया, तो वह भारतरत्न बाबा साहब डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर के संघर्ष से। इसलिए डाॅ0 एन. सिंह के जीवन और साहित्य के एक मात्र प्रेरणा स्रोत बाबा साहब ही हैं। उनका सम्पूर्ण साहित्य बाबा साहब और उनकी विचारधारा से अनुप्रमाणित तथा दलित समाज को ही समर्पित है। उनके लेखों में भी सर्वत्र यह आग दृष्टिगोचर होती है। इसका एक उदाहरण उनके एक लेख 'दलित उत्थान: कुछ भावी रणनीतियां' से देखा जा सकता है। वे लिखते हैं- "इतिहास केवल उन्हीं जातियों का होता है, जो लड़ती हैं या फिर घोर यातनाएं सहती है। दलितों का इतिहास यातना सहने का इतिहास है। भारतीय धर्म, संस्कृति और समाज में शताब्दियों से जुल्मों का शिकार होते आ रहे दलितों को, केवल स्वतन्त्रता के बाद ही, भारत में आगे बढ़ने का अवसर मिल पाए, लेकिन इन अवसरों को रोकने के लिए प्रयास भी निरन्तर होते रहे। बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में ये प्रयास तब सफल होते दिखाई दिए, जब भारत में उदारीकरण, भूमण्डलीकरण और निजीकरण को भारत सरकार ने लागू कर दिया। इसके कारण सरकारी नौकरियों में, जहां दलितों को अवसर मिलने की सबसे ज्यादा उम्मीद थी, उसमें प्रतिवर्ष 5 प्रतिशत की कटौती तथा सभी प्रकार की नियुक्तियों पर रोक लगा दी गई। दरअसल यह रोक दलितों को नौकरियों में प्रवेश पर रोक लगाने की गरज से लगाई गई है, ताकि चोर दरवाजे से इन नौकरियों में सवर्णों को भरा जा सके। इस प्रकार वर्चस्ववादी सवर्ण मानसिकता, जिसे अब मनुवादी मानसिकता के नाम से भी जाना जाता है, ने एक बार फिर षड़यंत्र रचकर दलितों को अपनी पूर्व स्थिति में लौटाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया है, जिसमें वे हजारों वर्ष पूर्व थे।" डाॅ0 एन. सिंह का सम्पूर्ण लेखन इन सवर्ण षड़यंत्रों के विरूद्ध दलित चेतना की एक मशाल है जो विगत 25 वर्षों से निरन्तर चल रही है। जलती रहे यही उनकी कामना है।